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Monday, 28 August 2017

जैन धर्म by bajrang Lal

 ईसा पूर्व छठी शताब्दी में मध्य एवं निम्न गंगा के मैदानों में 62 धार्मिक संप्रदाय का उदय हु आ ,  जिनमें जैन संप्रदाय और बौद्ध संप्रदाय सबसे महत्वपूर्ण थे ।


                        जैन धर्म



 इसके प्रवर्तक ऋषभदेव थे , ऋषभदेव एवं अरिष्टनेमि का उल्लेख ऋग्वेद में है ।

 जैन धर्म की उत्पत्ति जिन से हुई जिसका तात्पर्य है ,  विजेता ।

 तीर्थकर का तात्पर्य है जो व्यक्ति अन्य व्यक्तियों  को मार्ग दिखाएं ।

                       वर्धमान महावीर

 महावीर का जन्म 540 ईसा पूर्व कुण्डग्राम में हु आ ।

 महावीर के बचपन का नाम वर्घ्दमान था वे  ￶￰ज्ञातृक क्षत्रिय  वंश से संबंधित थे ।

 उनके पिता सिद्धार्थ , माता त्रिशला , पत्नी यशोदा तथा पुत्री अणोज्या / प्रियदर्शनी थी.।
 प्रियदर्शिनी का विवाह जमाली से हुआ ।

 महावीर ने 30  वर्ष की उम्र में अपने बड़े भाई नंदिवर्धन से आज्ञा लेकर गृह त्याग दिया ।
 12 वर्ष की कठोर तपस्या के बाद उन्हें जम्भिक ग्राम के पास रिजुपालिका नदी के तट पर साल वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हु आ।
 वह 24वें  तीर्थकर थे ।


 महावीर का निधन 72 वर्ष की आयु   में 468 ईस। पूर्व पावापुरी  में मल्ल के शासक सुस्तपाल के राज्य  में हुआ।





       जैन धर्म के सिद्धांत

 जैन धर्म के पाँच ￶व्रत हैं ।

 1. अहिंसा 2.  सत्य   ३ . अस्तेय  4.  अपरिग्रह और.    5.  ब्रह्मचर्य  ।
 प्रथम चार का प्रतिपादन पार्श्वनाथ ने किया और ब्रम्हचर्य  का प्रतिपादन महावीर ने किया  ।


 ग्रहस्त जीवन में रहने वाले जैनियों     के लिए महाव्रत में कठोरता कम थी इसलिए इन्हें अणुव्रत कहा जाता था।




                           त्रिरत्न


 त्रिरत्न  के द्वारा मोक्ष प्राप्त किया  जा सकता था ।

 सम्यक ज्ञान   2.   सम्य क ध्यान  और. 3 .  सम्यक आचरण ।

 स्यादवाद--- जैन  धर्म के अनुसार सात न य होते हैं जिन्हें स्या दवाद कहते है । , इसे अनेकांतवाद और सप्तभंगी भी कहते है। ।


 सल्लेखना ---- निराहार और निर्जल रहकर प्राण त्या गना लिखना कहलाता है ।
 चंद्रगुप्त मौर्य ने इसी पद्धति से प्राण त्यागे  थे ।





 जैन  धर्म में देवताओं को स्वीकारा था परंतु उसका स्थान  जिन के नीचे रखा गया  ।


 महावीर के अनुसार पूर्व जन्म के अर्जित पुण्य या   पाप के अनुसार ही किसी का जन्म उच्च और निम्न  कुल   में होता है ।

   
             जैन  धर्म का प्रसार



 ज्ञान  प्राप्ति के बाद महावीर ने अपना पहला उपदेश राजगृह में विपुल पहाड़ी के पास दिया ।


 जमाली इन  के प्रथम शिष्य बने ।

और चंदना  (चम्पा  नरेश दधिवाहन  की पुत्री  ) प्रथम भिक्षुणी बनी ।


 महावीर के प्रधान  शिष्यों की संख्या 11 थी जिन्हें गणधर कहा जाता था ।

 महावीर ने प्राकृत  भाषा में धर्म का प्रचार किया त था जैन  धर्म के प्रचार के लिए पावापुरी में एक जैैन संघ की स्थापना की ।

 आनंद , सुरदेव  , कामदेव एवं  कुण्डकोलिय इनके प्रमुख शिष्य थे ।

 महावीर की मृत्यु के बाद सुधर्मन जैन संघ का अध्यक्ष बना ।





     जैन धर्म का विभाजन


 जैन ग्रंथ परिशिष्ट पर्वन   के अनुसार मगध में 12 वर्षों त क लंबा अकाल पड़ा ,  अतः बहुत  से जैन भद्रबाहु के नेतृत्व में श्रवणबेलगोला चले गए , शेष जैन लोग स्थूलभद्र के नेतृत्व में मगध  में ही रुक गए ।

 अकाल समाप्त  होने पर जब भद्रबाहु व उनके समर्थक मगध लौटे तो स्थानीय लोगों से उनका मत भेद हो गया ।,  उन्होंने पाया कि स्थानीय लोगों ने जैन धर्म का पालन नहीं किया है ।

 इस मत भेद को दूर करने के लिए पाटलिपुत्र में एक परिषद का आयोजन किया गया जिसका दक्षिण जैनों ने बहिष्कार किया ।


 तब से दक्षिणी जैन दिगंबर और मगध के जैन श्वेतांबर कहलाए ।




                      जैन साहित्य

 जैन साहित्य को आगम कहा जाता है ,   इसमें 12 अंग 12 , उपांग 10,  प्रकीर्ण   और 6  छेद सूत्र , 04 मूल सूत्र होते हैं ।

 जैन धर्म के ग्रंथ अर्धमागधी में लिखे गए ।

 भद्रबाहु नेे कल्पसूत्र को  संस्कृत  में लिखा ।

 प्रमेय कमलमार्तण्ड की रचना प्रभाचंद्र ने की .।





 जैन भिक्षुओं के आचार नियमों का उल्लेख आचारांग सूत्र में है ।

 परिशिष्ट पर्वन  की रचना हेमचंद्र ने की थी । 

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