ईसा पूर्व छठी शताब्दी में मध्य एवं निम्न गंगा के मैदानों में 62 धार्मिक संप्रदाय का उदय हु आ , जिनमें जैन संप्रदाय और बौद्ध संप्रदाय सबसे महत्वपूर्ण थे ।
जैन धर्म
इसके प्रवर्तक ऋषभदेव थे , ऋषभदेव एवं अरिष्टनेमि का उल्लेख ऋग्वेद में है ।
जैन धर्म की उत्पत्ति जिन से हुई जिसका तात्पर्य है , विजेता ।
तीर्थकर का तात्पर्य है जो व्यक्ति अन्य व्यक्तियों को मार्ग दिखाएं ।
वर्धमान महावीर
महावीर का जन्म 540 ईसा पूर्व कुण्डग्राम में हु आ ।
महावीर के बचपन का नाम वर्घ्दमान था वे ज्ञातृक क्षत्रिय वंश से संबंधित थे ।
उनके पिता सिद्धार्थ , माता त्रिशला , पत्नी यशोदा तथा पुत्री अणोज्या / प्रियदर्शनी थी.।
प्रियदर्शिनी का विवाह जमाली से हुआ ।
महावीर ने 30 वर्ष की उम्र में अपने बड़े भाई नंदिवर्धन से आज्ञा लेकर गृह त्याग दिया ।
12 वर्ष की कठोर तपस्या के बाद उन्हें जम्भिक ग्राम के पास रिजुपालिका नदी के तट पर साल वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हु आ।
वह 24वें तीर्थकर थे ।
महावीर का निधन 72 वर्ष की आयु में 468 ईस। पूर्व पावापुरी में मल्ल के शासक सुस्तपाल के राज्य में हुआ।
जैन धर्म के सिद्धांत
जैन धर्म के पाँच व्रत हैं ।
1. अहिंसा 2. सत्य ३ . अस्तेय 4. अपरिग्रह और. 5. ब्रह्मचर्य ।
प्रथम चार का प्रतिपादन पार्श्वनाथ ने किया और ब्रम्हचर्य का प्रतिपादन महावीर ने किया ।
ग्रहस्त जीवन में रहने वाले जैनियों के लिए महाव्रत में कठोरता कम थी इसलिए इन्हें अणुव्रत कहा जाता था।
त्रिरत्न
त्रिरत्न के द्वारा मोक्ष प्राप्त किया जा सकता था ।
सम्यक ज्ञान 2. सम्य क ध्यान और. 3 . सम्यक आचरण ।
स्यादवाद--- जैन धर्म के अनुसार सात न य होते हैं जिन्हें स्या दवाद कहते है । , इसे अनेकांतवाद और सप्तभंगी भी कहते है। ।
सल्लेखना ---- निराहार और निर्जल रहकर प्राण त्या गना लिखना कहलाता है ।
चंद्रगुप्त मौर्य ने इसी पद्धति से प्राण त्यागे थे ।
जैन धर्म में देवताओं को स्वीकारा था परंतु उसका स्थान जिन के नीचे रखा गया ।
महावीर के अनुसार पूर्व जन्म के अर्जित पुण्य या पाप के अनुसार ही किसी का जन्म उच्च और निम्न कुल में होता है ।
जैन धर्म का प्रसार
ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर ने अपना पहला उपदेश राजगृह में विपुल पहाड़ी के पास दिया ।
जमाली इन के प्रथम शिष्य बने ।
और चंदना (चम्पा नरेश दधिवाहन की पुत्री ) प्रथम भिक्षुणी बनी ।
महावीर के प्रधान शिष्यों की संख्या 11 थी जिन्हें गणधर कहा जाता था ।
महावीर ने प्राकृत भाषा में धर्म का प्रचार किया त था जैन धर्म के प्रचार के लिए पावापुरी में एक जैैन संघ की स्थापना की ।
आनंद , सुरदेव , कामदेव एवं कुण्डकोलिय इनके प्रमुख शिष्य थे ।
महावीर की मृत्यु के बाद सुधर्मन जैन संघ का अध्यक्ष बना ।
जैन धर्म का विभाजन
जैन ग्रंथ परिशिष्ट पर्वन के अनुसार मगध में 12 वर्षों त क लंबा अकाल पड़ा , अतः बहुत से जैन भद्रबाहु के नेतृत्व में श्रवणबेलगोला चले गए , शेष जैन लोग स्थूलभद्र के नेतृत्व में मगध में ही रुक गए ।
अकाल समाप्त होने पर जब भद्रबाहु व उनके समर्थक मगध लौटे तो स्थानीय लोगों से उनका मत भेद हो गया ।, उन्होंने पाया कि स्थानीय लोगों ने जैन धर्म का पालन नहीं किया है ।
इस मत भेद को दूर करने के लिए पाटलिपुत्र में एक परिषद का आयोजन किया गया जिसका दक्षिण जैनों ने बहिष्कार किया ।
तब से दक्षिणी जैन दिगंबर और मगध के जैन श्वेतांबर कहलाए ।
जैन साहित्य
जैन साहित्य को आगम कहा जाता है , इसमें 12 अंग 12 , उपांग 10, प्रकीर्ण और 6 छेद सूत्र , 04 मूल सूत्र होते हैं ।
जैन धर्म के ग्रंथ अर्धमागधी में लिखे गए ।
भद्रबाहु नेे कल्पसूत्र को संस्कृत में लिखा ।
प्रमेय कमलमार्तण्ड की रचना प्रभाचंद्र ने की .।
जैन भिक्षुओं के आचार नियमों का उल्लेख आचारांग सूत्र में है ।
परिशिष्ट पर्वन की रचना हेमचंद्र ने की थी ।
जैन धर्म
इसके प्रवर्तक ऋषभदेव थे , ऋषभदेव एवं अरिष्टनेमि का उल्लेख ऋग्वेद में है ।
जैन धर्म की उत्पत्ति जिन से हुई जिसका तात्पर्य है , विजेता ।
तीर्थकर का तात्पर्य है जो व्यक्ति अन्य व्यक्तियों को मार्ग दिखाएं ।
वर्धमान महावीर
महावीर का जन्म 540 ईसा पूर्व कुण्डग्राम में हु आ ।
महावीर के बचपन का नाम वर्घ्दमान था वे ज्ञातृक क्षत्रिय वंश से संबंधित थे ।
उनके पिता सिद्धार्थ , माता त्रिशला , पत्नी यशोदा तथा पुत्री अणोज्या / प्रियदर्शनी थी.।
प्रियदर्शिनी का विवाह जमाली से हुआ ।
महावीर ने 30 वर्ष की उम्र में अपने बड़े भाई नंदिवर्धन से आज्ञा लेकर गृह त्याग दिया ।
12 वर्ष की कठोर तपस्या के बाद उन्हें जम्भिक ग्राम के पास रिजुपालिका नदी के तट पर साल वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हु आ।
वह 24वें तीर्थकर थे ।
महावीर का निधन 72 वर्ष की आयु में 468 ईस। पूर्व पावापुरी में मल्ल के शासक सुस्तपाल के राज्य में हुआ।
जैन धर्म के सिद्धांत
जैन धर्म के पाँच व्रत हैं ।
1. अहिंसा 2. सत्य ३ . अस्तेय 4. अपरिग्रह और. 5. ब्रह्मचर्य ।
प्रथम चार का प्रतिपादन पार्श्वनाथ ने किया और ब्रम्हचर्य का प्रतिपादन महावीर ने किया ।
ग्रहस्त जीवन में रहने वाले जैनियों के लिए महाव्रत में कठोरता कम थी इसलिए इन्हें अणुव्रत कहा जाता था।
त्रिरत्न
त्रिरत्न के द्वारा मोक्ष प्राप्त किया जा सकता था ।
सम्यक ज्ञान 2. सम्य क ध्यान और. 3 . सम्यक आचरण ।
स्यादवाद--- जैन धर्म के अनुसार सात न य होते हैं जिन्हें स्या दवाद कहते है । , इसे अनेकांतवाद और सप्तभंगी भी कहते है। ।
सल्लेखना ---- निराहार और निर्जल रहकर प्राण त्या गना लिखना कहलाता है ।
चंद्रगुप्त मौर्य ने इसी पद्धति से प्राण त्यागे थे ।
जैन धर्म में देवताओं को स्वीकारा था परंतु उसका स्थान जिन के नीचे रखा गया ।
महावीर के अनुसार पूर्व जन्म के अर्जित पुण्य या पाप के अनुसार ही किसी का जन्म उच्च और निम्न कुल में होता है ।
जैन धर्म का प्रसार
ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर ने अपना पहला उपदेश राजगृह में विपुल पहाड़ी के पास दिया ।
जमाली इन के प्रथम शिष्य बने ।
और चंदना (चम्पा नरेश दधिवाहन की पुत्री ) प्रथम भिक्षुणी बनी ।
महावीर के प्रधान शिष्यों की संख्या 11 थी जिन्हें गणधर कहा जाता था ।
महावीर ने प्राकृत भाषा में धर्म का प्रचार किया त था जैन धर्म के प्रचार के लिए पावापुरी में एक जैैन संघ की स्थापना की ।
आनंद , सुरदेव , कामदेव एवं कुण्डकोलिय इनके प्रमुख शिष्य थे ।
महावीर की मृत्यु के बाद सुधर्मन जैन संघ का अध्यक्ष बना ।
जैन धर्म का विभाजन
जैन ग्रंथ परिशिष्ट पर्वन के अनुसार मगध में 12 वर्षों त क लंबा अकाल पड़ा , अतः बहुत से जैन भद्रबाहु के नेतृत्व में श्रवणबेलगोला चले गए , शेष जैन लोग स्थूलभद्र के नेतृत्व में मगध में ही रुक गए ।
अकाल समाप्त होने पर जब भद्रबाहु व उनके समर्थक मगध लौटे तो स्थानीय लोगों से उनका मत भेद हो गया ।, उन्होंने पाया कि स्थानीय लोगों ने जैन धर्म का पालन नहीं किया है ।
इस मत भेद को दूर करने के लिए पाटलिपुत्र में एक परिषद का आयोजन किया गया जिसका दक्षिण जैनों ने बहिष्कार किया ।
तब से दक्षिणी जैन दिगंबर और मगध के जैन श्वेतांबर कहलाए ।
जैन साहित्य
जैन साहित्य को आगम कहा जाता है , इसमें 12 अंग 12 , उपांग 10, प्रकीर्ण और 6 छेद सूत्र , 04 मूल सूत्र होते हैं ।
जैन धर्म के ग्रंथ अर्धमागधी में लिखे गए ।
भद्रबाहु नेे कल्पसूत्र को संस्कृत में लिखा ।
प्रमेय कमलमार्तण्ड की रचना प्रभाचंद्र ने की .।
जैन भिक्षुओं के आचार नियमों का उल्लेख आचारांग सूत्र में है ।
परिशिष्ट पर्वन की रचना हेमचंद्र ने की थी ।
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